Monday, September 21, 2009

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के आखिरी पल

सुप्रिया रॉय

शहीद भगत सिंह होते तो इस महीने की 27 तारीख को 98 साल के हो गए होते। मगर उन्होंने शहीद होने का रास्ता खुद चुना था। यह बात अलग है कि ब्रिटिश सरकार उनसे इतनी नफरत करती थी कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखेदव को फांसी दी गई, मरने से पहले ही उतार लिया गया, जेल से बाहर निकाल कर गोली से उड़ाया गया और गोली मारने की बात सही साबित न हो जाए इसलिए पोस्टमार्टम तक नहीं करवाया गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को मृत्यु दंड नहीं दिया गया था बल्कि उनकी हत्या की गई थी। एक गलतफहमी यह भी है कि इन तीनों को तत्कालीन संविधान सभा में बम फेंकने के आरोप में मृत्यु दंड दिया गया। सच यह है कि साइमन कमीशन के खिलाफ शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे लाला लाजपत राय के सिर पर लाठी मार कर उन्हें मार डालने वाले ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्कॉट से बदला लेने के लिए इन तीनों ने योजना बनाई थी लेकिन गलतफहमी में उनके डीएसपी जेपी सांडर्स को मार डाला था। सांडर्स की हत्या के आरोप में इन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी। 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने ऑपरेशन ट्रोजन हॉर्स के नाम से एक नाटक खेला। लाहौर जेल में सारे नियम तोड़ते हुए रात को सात बजे भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी पर चढ़ाया गया। इसके पहले कि उनके प्राण निकल पाते, इन तीनों को फंदों से उतार लिया गया और फिर लाहौर छावनी के पास इन तीनों को गोली से उड़ाया गया। अगर पोस्टमार्टम होता तो शरीर से गोलियां बरामद होती और पोल खुल जाती इसलिए पोस्टमार्टम नहीं किया गया। लंदन के अभिलेखागार में मौजूद दस्तावेजों में यह तथ्य मौजूद हैं। भारत सरकार पता नहीं क्यों इन दस्तावेजों को लाने से या मंगाने से इंकार कर रही है। आम तौर पर सभी यह विश्वास करते हैं कि महात्मा गांधी हालांकि नौजवान भगत सिंह की बहादूरी के प्रशंसक थे और उन्होंने यह भी कहा था कि वे भगत सिंह के या किसी के भी मृत्यु दंड के खिलाफ हैं मगर उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार को अपने अभियुक्तों को अपने नियमों के अनुसार फांसी देने का पूरा अधिकार है। वैसे गांधी जी ने कहा था कि किसी का जीवन लेने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है क्योंकि वही जीवन देता है। इस तरह की टोटकेबाजी हमारे राष्ट्रपिता करते रहते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी इस मामले का वर्णन नहीं किया है। सत्य के साथ उनके प्रयोग इस मामले में अधूरे है। गांधी चाहते तो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की जान बचा सकते थे। आखिर उन्होंने लार्ड इरविन से समझौता कर के सत्याग्रह करने वाले नब्बे हजार राजनैतिक कैदियों को छुड़वाया ही था। ऐसा नहीं कि गांधी ने कोशिश नहीं की हो। मगर यह कोशिश निर्णायक नहीं थी। 19 मार्च 1931 को गांधी खुद लार्ड इरविन से मिले थे और फांसी की सजा माफ करने के लिए कहा था। इसके बाद उन्होंने ठीक फांसी वाले दिन वायसराय को एक पत्र भी लिखा था और कहा था कि फांसी माफ कर दी जाए। मगर यह पत्र वायसराय की मेज तक पहुंचता इससे पहले ही रात को ही इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। ब्रिटिश गुप्तचर ब्यूरो के दस्तोवज भारत को मंगाने जरूरी है। हालांकि भारत में नेहरू गांधी परिवार के अलावा किसी को आजादी का सिपाही नहीं माना जाता और इसीलिए पंजाब में भगत सिंह के गांव खटकड़कलां में सड़क के किनारे भगत सिंह का एक स्मारक बना दिया गया है और उन्हें भुला दिया गया है। 2007 में प्रकाशित एक पुस्तक में इन दस्तावेजों का वर्णन है और इसमें भगत सिंह और उनके साथियों की मौत और उनके अंतिम संस्कार के बारे में कई सवाल उठाए गए हैं। इस किताब के मुख्य स्रोत दिलीप सिंह अलाहाबादी हैं जो एक जमाने में नेहरू जी के घर आनंद भवन इलाहबाद में माली हुआ करते थे और उनके बारे में कहानी प्रचलित है कि एक जुलूस में उन्होंने नेहरू जी को थप्पड़ भी जड़ दिया था। यह भी कहा जाता है कि वे खुद ब्रिटिश सरकार के लिए जासूसी करने लगे थे और बाद में खुद इंग्लैंड चले गए थे। वहां जा कर उन्होंने कुलवंत सिंह नाम के एक बच्चे को गोद लिया था जो डर्बी शहर में रहता है। अलाहाबादी की मृत्यु 1986 में हो गई थी मगर वे अपने पीछे बहुत सारी डायरियां और दस्तावेज छोड़ गए थे। 1992 में कुलवंत सिंह ने इस किताब पर काम शुरू किया और उनके सामने चौकाने वाली जानकारियां सामने आई। वे ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन में जा कर कई दस्तावेज खुद देख कर आए। उनकी शोध से जो कहानी निकलती है उसके अनुसार ऑपरेशन ट्रोजन हॉर्स इसलिए रचा गया था क्योंकि सांडर्स के वद से पुलिस वाले और खास तौर पर सांडर्स के परिवार वाले बहुत आहत थे। इसीलिए इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर सिर्फ गर्दन की हड्डी टूटने तक लटकाया गया और फिर लाहौर छावनी के पास जिन लोगों ने इन आधे मुर्दा शहीदों पर गोलियां चलाई उनमें से सांडर्स के परिवार वाले भी थे। भारत में हमेशा से सुबह तड़के फांसी देने का रिवाज है। कानून भी यही कहता है। मगर प्रतिशोध का यह पाखंड फिरंगियों को करना था और दिन में ऐसा करने से पूरी दुनिया को पता लग जाता, इसलिए सांडर्स के परिवार को प्रसन्न करने के लिए रात सात बजे का फांसी का अभिनय किया गया। दरअसल जब भगत सिंह के पास उनके जल्लाद पहुंचे तो वे लेनिन की एक किताब पढ़ रहे थे। उन्हें बताया गया कि उनका अंत समय आ गया है और उन्हें गुरुबानी पढ़नी चाहिए। भगत सिंह ने कहा कि आखिरी वक्त पर भगवान को याद किया तो मुझे कायर माना जाएगा और वैसे भी मैं एक क्रांतिकारी के बारे में पढ़ रहा हूं। किताब के आखिरी पन्ने खत्म कर के वे उठे और फांसी के फंदे पर पहुंच कर इंकलाब ंजिंदाबाद का नारा लगा दिया। इसके पहले नियमानुसार परिवार वालों से उनकी आखिरी मुलाकात भी नहीं करवाई गई थी। और तो और रहस्य छुपा रहे इसलिए जिस जल्लाद ने फांसी दी थी उसे भी फौरन मार डाला गया। तीनों को गोलियों से भुनने के बाद एक लॉरी में सतलज और ब्यास नदियों के संगम पर हुसैनीवाला के पास निपट एकांत में आधी रात के आसपास चिता पर नहीं, मिट्टी का तेल डाल कर जलाया गया। भगत सिंह की बहन बीबी अमर कौर कहानी सुनते ही वहां पहुंची और पाया कि अधजली हड्डियां वहां पड़ी हुई हैं और उन्हें उठा कर लाई और लाहौर में रावी नदी के किनारे अच्छी खासी भीड़ के सामने उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया गया। पता नहीं इस बात में कितना दम है कि जब जेल से बेहोश भगत सिंह को लाया जा रहा था तो उन्हें हल्का सा होश आया। उस समय पंजाब के गवर्नर के सचिव सांडर्स के ससुर थे और उन्हें भी भगत सिंह के सिर सीने में गोलिया मारने दी गई। पंजाब सीआईडी के एसपी वीएन स्मिथ के संस्मरण ब्रिटिश लाइब्रेरी में माइक्रोफिल्म पर मौजूद है और उन्हें आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। मगर फिर सवाल उठता है कि सच जानना कौन चाहता है और सच क्या वास्तव में सबको पता नहीं है

The questions raised by Madam Supriya Ray in her article at Dateline india are quite serious and wants a serious thought of all the indians who presently knows from the class textbooks that they were hanged in relation with the asambly blast case. can anybody throughs more light on this issue.

thank you Supriya ji for informing us the story of our freedom fighters with a different angle